काफी विलंब से मिला भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा आडवाणी को भारत रत्न, प्रस्तुत है उनकी उपलब्धियों पर आलेख

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15 साल की उम्र में 1942 में आरएसएस के एक स्वयंसेवक के रूप में सार्वजनिक जीवन की शुरुआत करने वाले लालकृष्ण आडवाणी को अब जब देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया है तो यह आभास होता है कि इसके लिए इससे बेहतर कोई समय नहीं हो सकता था। जब देश के अंदर कई विचारधाराएं बहुत प्रबल थीं तो श्रीराम के नाम से राजनीति में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद करने वाले आडवाणी को अब राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के एक पखवाड़े के अंदर ये सम्मान मिला है और यह भी बहुत सहजता से कहा जा सकता है कि आज के दिन देश में आडवाणी के नाम का कोई विरोध करने वाला भी नहीं।

भाजपा आज एक अजेय राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित है, लेकिन अस्सी के दशक में आडवाणी के प्रयास ने ही भाजपा को कांग्रेस से इतर एक वैकल्पिक राजनीति का आधार खड़ा करने में अहम भूमिका निभाई। अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता के साथ ही लालकृष्ण आडवाणी के संगठनकर्ता के रूप में योगदान को भाजपा को 1984 से दो सीटों से लेकर 15 साल में सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में अहम माना जाता है। दरअसल, अटल बिहारी भाजपा के सबसे बड़े चेहरे थे, लेकिन परदे के पीछे संगठन को खड़ा करने का काम आडवाणी ने ही किया।

आडवाणी की सलाह से खड़ी हुई थी पार्टी
1980 में आडवाणी ने ही वाजपेयी को सलाह दी थी कि जनता पार्टी परिवार से अलग होकर पार्टी का गठन करना चाहिए, क्योंकि तब के जनता पार्टी के नेता वाजपेयी के विकास को रोकने की कोशिश कर रहे थे। आडवाणी ने ही कमल फूल का चुनाव चिन्ह चुना था। राजनीति में अटल-आडवाणी की जोड़ी बहुत सफल और अटूट मानी जाती थी। 2015 में वाजपेयी को भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। शनिवार को प्रधानमंत्री मोदी के काल में ही आडवाणी को भी भारत रत्न देने का ऐलान हो गया।

पालमपुर के अधिवेशन में अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को भाजपा के एजेंडे में शामिल कराने और फिर 1990 में रामरथ यात्रा के सहारे इसे जन-जन तक पहुंचाने में आडवाणी की केंद्रीय भूमिका रही थी। ध्यान देने की बात है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उस समय रामरथ यात्रा के संयोजन में अहम भूमिका में रहे थे। 34 सालों बाद भव्य राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के 11 दिन बाद खुद प्रधानमंत्री मोदी ने आडवाणी को भारत रत्न से सम्मानित करने की सूचना दी। वैसे रामरथ से भारत रत्न तक की आडवाणी की यात्रा भी उतार चढ़ावों से भरी रही।

वाजपेयी सरकार में गृह मंत्री और उप प्रधानमंत्री के रूप में आडवाणी राष्ट्रीय सुरक्षा के कड़े फैसलों के लिए जाने जाते थे। वाजपेयी भले ही प्रधानमंत्री के रूप में सरकार के अगुवा थे, लेकिन पार्टी के संगठन में आडवाणी की छाप हर तरफ देखी जा सकती थी और यही कारण है कि एक बार आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने की मांग भी उठी थी।

दिग्गज नेता की राजनीतिक यात्रा
आडवाणी की राजनीति की शुरुआत 1957 से अटल बिहारी वाजपेयी और दीनदयाल उपाध्याय के सहयोगी के रूप में हुई। इसके साथ ही उन्होंने आर्गेनाइजर में काम करते हुए पत्रकारिता में भी हाथ आजमाया, लेकिन बाद में पूरा जीवन राजनीति को समर्पित कर दिया। 1970 में पहली बार राज्यसभा से संसद में प्रवेश करने वाले लालकृष्ण आडवाणी 2019 तक कुल 10 बार संसद सदस्य के रूप में रहे।

1984 में दो सीटों पर सिमटने के बाद भी आडवाणी ने हार नहीं मानी और पांच साल बाद पार्टी को 85 सीटों पर पहुंचा दिया। इसके बाद भाजपा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और अमित शाह के अध्यक्ष रहते हुए दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गई।

जब आडवाणी को अध्यक्ष पद से धोना पड़ा था हाथ
कट्टर हिंदुत्व वाली छवि के बावजूद आडवाणी जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने को लेकर विवादों में भी रहे। लाहौर की यात्रा के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताने पर भाजपा के कार्यकर्ताओं में ही नाराजगी देखने को मिली और आडवाणी को अध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ा। इसके बावजूद लालकृष्ण आडवाणी की अहमियत भाजपा में कम नहीं हुई और 2009 में उनके चेहरे पर ही पार्टी लोकसभा का चुनाव लड़ी। यह और बात है कि भाजपा तब अपेक्षित सफलता नहीं पास सकी थी।

स्वयंसेवक से उप प्रधानमंत्री तक
1980 में भाजपा के गठन के बाद से ही आडवाणी वह शख्स हैं, जो सबसे ज्यादा समय तक पार्टी में अध्यक्ष पद पर बने रहे हैं। बतौर सांसद तीन दशक की लंबी पारी खेलने के बाद आडवाणी पहले गृह मंत्री रहे, बाद में अटल सरकार में (1999-2004) उप प्रधानमंत्री बने। आडवाणी को बेहद बुद्धिजीवी, काबिल और मजबूत नेता माना जाता है जिनके भीतर मजबूत और संपन्न भारत का विचार जड़ तक समाहित है। जैसा कि वाजपेयी कहते थे- आडवाणी ने कभी राष्ट्रवाद के मूलभूत विचार को नहीं त्यागा और इसे ध्यान में रखते हुए राजनीतिक जीवन में वह आगे बढ़े हैं और जहां जरूरत महसूस हुई है, वहां उन्होंने लचीलापन भी दिखाया है।

आठ नवंबर, 1926 को अविभाजित भारत के कराची शहर में जन्मे आडवाणी 96 वर्ष के हो चुके हैं। भारतीय राजनीति को देश की मिट्टी से जोड़ने और भारतीयता को आगे बढ़ाने में उनका योगदान अमूल्य है। उन्हें बहुत पहले ही भारत रत्न मिल जाना चाहिए था। लेकिन जैसी की कहावत है देर आयद दुरूस्त आयद। देर से ही सही भारत सरकार ने भारत माता के इस अमूल्य रत्न को भारत रत्न देने की घोषणा की, हम इसका स्वागत करते हैं। आदरणीय आडवाणी जी को कोटि-कोटि बधाई। आपकी आभा से आज ‘भारत रत्न’ की दीप्ति बढ़ गई।

Courtesy: नीलू रंजन, Jagran

https://www.jagran.com/news/national-lal-krishna-advani-to-be-honoured-with-bharat-ratna-know-her-political-career-23644898.html

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