विदेशी फंडिंग वाली इन संस्थाओं का विरोध कीजिए, वरना कल को बड़ों के पाँव छूना भी कहलाएगा ‘अंधविश्वास’: बागेश्वर धाम से इसीलिए भड़के हैं मिशनरी

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प्रतिदिन सूर्योदय होना भी चमत्कार है। फिर सूर्य का अस्ताचलगामी हो जाना भी चमत्कार है। बुद्ध ग्रह पर 243 दिनों का तक सूर्य का अस्त न होना भी चमत्कार है और बृहस्पति पर 10 घंटे में ही दिन-रात का बीत जाना भी चमत्कार है। आप कहेंगे कि ये ग्रह तो स्पिन हो रहे हैं अपने ही अक्ष पर, तो मैं कहूँगा कि ये भी चमत्कार है। आप इसके पीछे ज्यादा से ज्यादा इनर्शिया, मोशन और ग्रेविटी समझा देंगे, मैं इसे भी चमत्कार बता दूँगा।

इसीलिए, समस्या ये नहीं है कि कोई चमत्कार करता है, बल्कि मुद्दा ये है कि आपकी नज़र में चमत्कार क्या है। एक अँधे को आँख आ जाने पर उसे जो दुनिया दिखाई देती है, वो चमत्कार ही चमत्कार है। हमने टीवी शोज में कई ऐसे मनोवैज्ञानिक देखे हैं, मन को पढ़ने वाले देखे हैं जो सामने वाले के भावों को तुरंत बता देते हैं। ये एक अध्ययन है, अभ्यास है, कला है। कभी शत-प्रतिशत सही भी हो सकता है तो कभी ऐसा भी हो सकता है कि कोई अनुमान ही न लग पाए।

ऐसे व्यक्ति को सारा सेटअप अपने हिसाब से चाहिए होता है, माहौल अनुकूल चाहिए होता है। जैसे Astrology विज्ञान है, वैसे ही मनोविज्ञान भी है। अगर कोई किसी के मन को पढ़ कर भगवान से उनके लिए प्रार्थना कर रहा है, अब ये चमत्कार है तो है। ये वही ‘महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति’ है, जिसने मदर टेरेसा की तारीफ़ की थी और कहा था कि वो अनाथों, बुजुर्गों और रोगियों की काफी मदद करती हैं। ये वही समिति है, जिसने जल में प्रतिमा विसर्जन के विरुद्ध अभियान चलाया था।

ये वही संस्था है, जिसे विदेश से फंडिंग प्राप्त होती है और इसे छिपाने के लिए उसे केंद्र सरकार से नोटिस भी जारी हुआ था। विदेश से इस संस्था को फंडिंग किसलिए आ रही है, सोचने वाली बात है। आज अगर हमने इनका विरोध नहीं किया तो कल को ऐसी संस्थाएँ बहुतायत में खड़ी हो जाएँगी और कहेंगी कि मंदिरों का अस्तित्व ही अंधविश्वास है और बड़ों के पाँव छूना भी अंधविश्वास है। आप उसके पीछे का विज्ञान साबित करते रह जाएँगे और ये एक कानून पारित करवा कर ऐसी चीजों को प्रतिबंधित भी करवा दें तो कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है।

हाँ, पादरियों के सामने पागल बन कर नाच करना और दरगाहों पर चादर चढ़ाना इसकी श्रेणी में नहीं आएगा। असली समस्या ये है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के गरीब व जनजातीय इलाकों में ईसाई मिशनरियों के प्रभाव को वहाँ के एकाध लोग कम कर रहे हैं। एक राजपरिवार से है, एक संत है। घर-वापसी के इन अभियानों ने उस खेमे की बेचैनी बढ़ा दी है, जिसे सबसे ज्यादा विदेशी फंडिंग प्राप्त होती है। उनके ‘चमत्कार’ से अवाक होकर जो लोग उधर जाते हैं, उन्हें इधर रोकने के लिए भी थोड़ा ‘चमत्कार’ आवश्यक है।

एक वर्ग के मन में ये भाव रहना चाहिए कि साधु-संतों के सामने ये पादरी कुछ भी नहीं हैं। जिस इलाके से पंडित धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री आते हैं और जैसे लोगों को उन्हें सनातन में रोक कर रखना है, ‘चमत्कार’ उनकी मजबूरी भी है और कलाकारी भी। अब समस्या तो यहाँ ये रह भी नहीं गई है कि वो जो करते हैं उसे चमत्कार कहा जाए या नहीं। समस्या ये है कि आप किसकी तरफ हैं – ईसाई मिशनरियों के या फिर बागेश्वर धाम सरकार के? एक 27 वर्ष का युवक इतना बड़ा कार्य कर रहा है तो उसका समर्थन तो बनता है।

कम से कम व्यास पीठ से अली मौला करने वालों और ‘दम-दम अली अली’ पर नाचने वालों से तो वो बेहतर है (हालाँकि, विरोध मैं ऐसे कथावाचकों या संतों का भी नहीं करता, क्योंकि अगर वो कुछ बहुत अच्छा वृहद् स्तर पर कर रहे हैं तो हल्का-फुल्का विरोध कर के इन चीजों को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है)। अक्सर जो नास्तिक होते हैं वो ये चुनौती देते हैं कि ईश्वर का अस्तित्व साबित कर के दिखाओ। असली चुनौती उन्हें दी जानी चाहिए कि वो ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का सबूत दें, साबित करें।

इससे पूरा मुद्दा ही बदल जाता है। ऐसे ही धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री पर आरोप लगाने वालों को उन्होंने भी चुनौती दी है कि ‘दरबार’ में आएँ और उन्हें गलत साबित करें। जो समर्थन कर रहे हैं उन्हें साबित करने की ज़रूरत ही नहीं है कि वो चमत्कार करते भी हैं नहीं। असल में चमत्कार कुछ नहीं है, ये तो अध्यात्म है या फिर विज्ञान। तुलसीदास के घर रामचरितमानस की चोरी करने गए लोगों को वहाँ तीर-धनुष लिए 2 लोग कुटिया की रक्षा करते दिखे थे।

इसी आसपास के जमाने में एक योगी ऐसे थे जो महीनों तक नदी में तैरते रहते थे। शंकराचार्य से लेकर महावतार बाबाजी तक, चमत्कार और रहस्य तो भरे परे हैं। पंडित धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री की पीढ़ियाँ वहाँ पर सिद्धि करती आई हैं और छत्तरपुर की उस धरती पर हनुमानजी विराजमान हैं। वहाँ जाकर उनकी बातें सुनना, भगवान का दर्शन करना और पीठाधीश्वर द्वारा अपने लिए प्रार्थना करवाने में गलत कुछ भी नहीं है।ताज़ा घटनाक्रम से उनका फायदा ही हुआ है, न सिर्फ उनके भक्तों/समर्थकों की संख्या बढ़ेगी बल्कि धाम पर पहुँचने वालों की तादाद में भी वृद्धि होगी।

जो उन्हें न मानते हों ये पोंगा-पंडित ही समझते हों, घर-वापसी के अभियान के लिए उनका समर्थन तो कर ही सकते हैं। जो ये भी नहीं कर सकते, वो बागेश्वर बालाजी के दर्शन तो कर ही सकते हैं। जिनकी हनुमानजी में भी आस्था नहीं, अब उनके बारे में क्या ही कहना! तुलसीदास ने भी कहा है – “कलयुग केवल नाम अधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा।” अर्थात, कलियुग में ईश्वर का नाम लेने भर से काम हो जाएगा, वेद-वेदाङ्ग का अध्ययन करने का समय न तो।

अगर बागेश्वर धाम के महंत के कहने पर कुछ लोग हनुमान और राम का नाम ही ले रहे हैं तो ये बहुत बड़ी बात है। जनजातीय और गरीब वर्ग को ये एहसास दिलाना है कि सनातन ही श्रेष्ठ है। एक तरफ पादरियों का ‘हल्लिलूय्याह’ है, एक तरफ बालाजी का नाम। एक तरफ भक्ति है, एक तरफ लालच। एक तरफ घर-वापसी है, एक तरफ धर्मांतरण। एक तरफ राष्ट्रभक्ति है, एक तरफ विदेशी फंडिंग। एक तरफ एक निर्दोष और सरल साधु है, एक तरफ चालबाज मिशनरी।

Courtesy: सौजन्यः अनुपम कुमार सिंह, OpIndia

विदेशी फंडिंग वाली इन संस्थाओं का विरोध कीजिए, वरना कल को बड़ों के पाँव छूना भी कहलाएगा ‘अंधविश्वास’: बागेश्वर धाम से इसीलिए भड़के हैं मिशनरी

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