देहरादून : बसंती दादी की उम्र 80 साल है। वृद्धावस्था पेंशन से गुजारा होता है। संपत्ति के नाम पर एक चीज है, अपना घर। दीवारें दरक रही हैं, घर कब गिर जाए, कोई भरोसा नहीं। बसंती दादी पूछती हैं- ‘मेरे न कोई आगे है, न पीछे। पेंशन से दो रोटी खाऊं या इस घर की मरम्मत करवाऊं। आप बता दो, इस उम्र में घर छोड़कर कहां जाऊं।’
मेरे पास बसंती दादी के सवाल का कोई जवाब नहीं। आपको भी उनके बारे में पढ़कर लगा होगा कि ये कहानी शायद उत्तराखंड के जोशीमठ की है, लेकिन ये कहानी वहां की नहीं है। ये उत्तराखंड के कई शहरों की साझी कहानी है। जमीन खिसक रही है, घरों में दरारें आ रही हैं। कब कोई बड़ा हादसा हो जाए, कोई नहीं जानता।
मैं उत्तराखंड की ऐसी ही पांच जगहों- कर्णप्रयाग, श्रीनगर, नैनीताल, उत्तरकाशी, बागेश्वर से उन लोगों की कहानियां लाया हूं, जिन्हें डेवलपमेंट के नाम पर सिर की छत कुर्बान करनी पड़ी है। सबसे बड़ा खतरा नैनीताल में है। यहां के तीन इलाके लैंडस्लाइड के लिहाज से सेंसिटिव जोन में हैं। एक्सपर्ट आशंका जता चुके हैं कि यहां कंस्ट्रक्शन किया गया और नैनी झील को नुकसान हुआ, तो इसका पानी 43 किमी दूर हल्द्वानी तक बाढ़ ला देगा।
NH-7 पर जोशीमठ से करीब 83 किलोमीटर दूर अलकनंदा नदी की घाटी में नीचे की तरफ बढ़ने पर आता है कर्णप्रयाग। घरों की दीवारों में दरारें आने का जो सिलसिला जोशीमठ में था, वो कर्णप्रयाग में जारी है। यहां करीब 50 घर दरके हैं। घरों की नींव हिल चुकी है। 50 में से करीब 26-27 घर रहने लायक नहीं बचे, फिर भी लोगों को इन्हीं टूटे मकानों में रहना पड़ रहा है।
लोगों के मुताबिक, साल 2013 में आई आपदा के बाद से लगातार कर्णप्रयाग के अलग-अलग इलाकों में जमीन धंसने की घटनाएं होती रही हैं। यहां सब्जी मंडी से ऊपर जाने वाला रास्ता पूरी तरह टूट गया है। कई जगह बड़ी-बड़ी दरारें हैं, यहां पैदल चलना जान खतरे में डालने जैसा है।
कर्णप्रयाग के बहुगुणा नगर में रहने वाले प्रेम सिंह के घर में भी कुछ साल पहले दरारें आई थीं। बीते 3-4 महीनों से ये बढ़ती जा रही हैं। प्रेम सिंह बताते हैं- ‘हमारे घरों के सामने पेड़ काटकर मंडी बनाई थी। इसी के बाद से जमीन धंसने लगी। मेरे 4 पड़ोसियों के घरों में दरारें आईं, तो वे घर छोड़कर चले गए। मुझे भी डर लगता है, छोटे-छोटे बच्चे हैं। लेकिन कहां जाएं, हमारे पास दूसरा मकान नहीं है।
प्रशासन के अधिकारी और SDM साहब भी कई बार आ चुके हैं। मकानों को कैटेगरी में बांटते हैं, निशान लगाते हैं और चले जाते हैं। पिछली बार आए थे, तो कहा था कि IIT रुड़की की टीम सर्वे करने आएगी, लेकिन अब तक कोई नहीं आया। अब जोशीमठ खिसक रहा है तो नायब तहसीलदार आए थे, लेकिन अब भी आश्वासन के सिवा कुछ नहीं मिला।’
प्रेम सिंह अलकनंदा नदी के दूसरी तरफ इशारा करते हुए कहते हैं- ’वहां अपर बाजार मार्केट में भी 15-20 घरों में दरारें आई हैं। यहीं पास में गांव जाख बंदाणी के कई घरों में भी दरारें आई हैं।’
इसी बीच प्रेम सिंह की पत्नी 40 साल की प्रतिमा देवी भी आ जाती हैं।
पहले बाल बराबर दरार थी, अब पूरा हाथ अंदर चला जाता है
प्रतिमा मुझे अपने घर ले जाती हैं और दरारें दिखाते हुए रो पड़ती हैं। कहती हैं- ’25 लाख रुपए खर्च कर ये घर बनवाया था। 6 महीने पहले एक बारीक सी दरार आई थी। अब इतनी बड़ी हो गई हैं कि पूरा हाथ अंदर चला जाए। डर लग रहा है, जब बारिश होगी तो क्या होगा। अब या तो सरकार हमें रहने के लिए दूसरी जगह दे दे या कम से कम इतना मुआवजा दे कि हम कहीं और घर ले लें। यहां रहना मतलब जान खतरे में डालना है।’
लोगों की बातों में SDM के दौरे का जिक्र आया तो मैंने उनसे भी बात की। कर्णप्रयाग के SDM रहे संतोष कुमार पांडे बताते हैं- ‘मैंने 5-6 महीने पहले उस इलाके का सर्वे किया था, जहां जमीन धंस रही है। सिंचाई विभाग से भी सर्वे कराया और आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत कार्रवाई करने के भी आदेश दिए थे। सिंचाई विभाग ने काम भी शुरू कर दिया है। वहां ड्रेनेज मुख्य दिक्कत है, मकान इस तरह से बन गए थे कि इलाके से पानी नहीं निकल पा रहा है।’
मैं ऑल वेदर रोड कंस्ट्रक्शन को लेकर हो रही ड्रिलिंग पर सवाल करता हूं तो कहते हैं- ‘मैं साफ बता दूं कि अभी उस इलाके में कोई काम नहीं चल रहा। ये ऐसा इलाका है कि अगर यहां कंस्ट्रक्शन होगा तो आपदा की आशंका है, इसलिए वहां कभी काम नहीं शुरू किया गया। हां, कुछ लोगों ने वहां से घर छोड़ दिया है, ये मेरी जानकारी में है।’
संतोष पांडे का ट्रांसफर 25 दिसंबर को कर्णप्रयाग से पोखरी हो गया था।
श्रीनगर में चल रहे रेलवे टनल प्रोजेक्ट पर विवाद है। जोशीमठ से 146 किलोमीटर दूर श्रीनगर के हाइडल मोहल्ला के आशीष विहार और नर्सरी रोड इलाके में करीब 30 घरों में दरारें आ गई हैं। करीब 6 महीने पहले लोगों ने टनल के लिए की जा रही ब्लास्टिंग की वजह से घरों में कंपन महसूस की। घरों में दरारें आ गई और ब्लास्टिंग के दौरान खिड़कियों के कांच भी टूट गए थे।
श्रीनगर में मेरी मुलाकात अमित धनाई से हुई। वे बताते हैं- रेलवे का काम ऋत्विक कंपनी कर रही है। हमारे घर टनल के ठीक ऊपर हैं। टनल बनाने के लिए कंपनी ब्लास्ट करती है तो घर हिलने लगता है। कांच फूट जाते हैं, दीवारों में दरारें आ चुकी हैं। अपर हाइडल कॉलोनी और आशीष विहार के 30 घरों में आप ये दरारें देख सकते हैं। जून-जुलाई 2022 में धमाके नहीं रुके तो हमने विरोध भी किया। उस वक्त SDM अजय वीर सिंह आए थे और हमें भरोसा दिया था कि मुआवजा मिलेगा।’
मैंने इस बारे में बात करने के लिए श्रीनगर के SDM अजय वीर सिंह को कॉल किया तो उन्होंने श्रीनगर के तहसीलदार श्रेष्ठ घुनसोला से बात करने को कहा।
धुनसोला के मुताबिक- ‘श्रीनगर की समस्या जोशीमठ की तरह नहीं है। रेलवे टनल की वजह से कुछ घरों में दरारों की समस्या आई थी, लोगों ने आवाज उठाई तो उसे सुधार लिया गया था। हमने अपर हाइडल कॉलोनी में जमीन धंसने और घरों में आई दरारों की जांच के लिए एक कमेटी भी बनाई थी। कमेटी ने पीड़ितों के घर की वीडियोग्राफी कराई थी। वहां ग्लास फाइबर टेक्नोलॉजी का भी इस्तेमाल किया गया था।’
हालांकि धुनसोला ये नहीं बता पाते कि इस कमेटी की रिपोर्ट का क्या हुआ।
झीलों का शहर नैनीताल भी जोशीमठ बनने से पीछे नहीं है। जोशीमठ से 272 किलोमीटर दूर नैनीताल के हनुमान वाटिका में बलिया नाले के पास साल 2009 से ही जमीन धंस रही है। इस इलाके में रहने वाले 75 साल के एक्टिविस्ट अजय रावत बताते हैं- ‘बलिया नाले के पास भूस्खलन काफी पहले से हो रहा है। हर साल बारिश के दौरान करीब 100 परिवारों को अस्थायी तौर पर विस्थापित करना ही पड़ता है।’
अजय रावत आगे कहते हैं- ‘सारे खतरों की अनदेखी कर साल 2010 में यहां हैलीपैड बनाया जा रहा था। इसके खिलाफ मैंने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर (नंबर 14/2010, अजय सिंह रावत बनाम उत्तराखंड सरकार) की थी, कोर्ट ने भी माना था कि ये बहुत ज्यादा संवेदनशील इलाका है।
इसके अलावा यहां हुई जियोलॉजिकल स्टडीज में भी बताया गया है कि हनुमान वाटिका, बलिया नाला और घाटी का इलाका संवेदनशील है। अगर यहां कंस्ट्रक्शन किया गया तो नैनी झील का पानी बहकर हल्द्वानी तक पहुंचेगा और रास्ते में आने वाले पूरे इलाके में भीषण बाढ़ आएगी।’
साल 2016 में वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलॉजी और ग्राफिक एरा हिल यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स की एक टीम ने नैनीताल में धंस रही जमीन की घटनाओं पर एक स्टडी की थी। इस टीम में शामिल डॉ. कोटिला के मुताबिक- ‘नैनीताल का आधा शहर ऐसी डेबरीस (मलबे) पर बसा है जो लैंडस्लाइड के बाद तैयार हुई थी।
जोशीमठ की तरह नैनीताल भी किसी बड़ी आपदा का इंतजार कर रहा है। बलिया नाला लैंडस्लाइड की घटना के बाद भी यहां रिसर्च हुई थी। इसमें सामने आया था कि यहां अगर कंस्ट्रक्शन करना भी है, तो बेहद संवेदनशील और हाई क्वालिटी की तकनीक का इस्तेमाल करना होगा।’
जोशीमठ जैसी ही स्थिति उत्तरकाशी जिले के भटवाड़ी में भी देखने को मिल रही है। जोशीमठ से 286 किलोमीटर दूर होने के बावजूद भटवाड़ी की भौगोलिक स्थिति भी मिलती-जुलती है। भटवाड़ी गांव और शहर के नीचे गंगा भागीरथी बहती है और ठीक उसके ऊपर गंगोत्री नेशनल हाईवे है। ये हाईवे सेना के लिए भी अहम है। साल 2010 में यहां गंगा भागीरथी के कटाव से करीब 50 मकान ढह गए थे और नेशनल हाईवे का एक हिस्सा नदी में समा गया था।
भटवाड़ी में हमारी मुलाकात 58 साल के कुशला प्रसाद से हुई। वे बताते हैं- साल 2010 और 2012 में यहां भूस्खलन हुआ था। साल 2013 में केदारनाथ आपदा आई। कहा गया था कि 50 परिवारों को नई जगह पर बसाया जाएगा। आज तक एक भी परिवार नहीं बस पाया। सभी दरारों वाले घरों में ही रह रहे हैं। सरकार की तरफ से कोई ध्यान देने वाला नहीं है।’
मैंने पड़ताल की तो पता चला कि उत्तरकाशी जिले में 26 गांव हाईली सेंसिटिव कैटेगरी में हैं। कुछ ही गांव हैं जहां सर्वे हुआ है या प्रशासन की टीम आई है। इन गांवों के करीब 50 परिवारों को साल 2010 में सुरक्षित घरों में शिफ्ट कराया गया था। जिन सरकारी घरों में इन्हें भेजा गया था, अब उनमें भी दरारें आ गई हैं।
भटवाड़ी के SDM सीएस चौहान बताते हैं- ‘सर्वे के मुताबिक, 49 परिवारों का विस्थापन होना था। कई लोगों को दूसरी जगह अलॉट कर दी गई है, लेकिन अब तक कोई विस्थापित नहीं हुआ। वहां फिलहाल जमीन समतल की जा रही है। लोगों को 2-2 लाख रुपए का मुआवजा दिया गया है। ये पूरा सिंकिंग जोन है, जोशीमठ आपदा के बाद से उस इलाके के पास के घरों में दरारों की शिकायतें आई हैं। हमें उस पूरे इलाके का सर्वे कराएंगे।’
उत्तरकाशी की स्थिति चिंताजनक, 773 परिवारों को विस्थापन का इंतजार
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, साल 1997 में डुंडा तहसील के बागी गांव की पूरी जमीन धंस गई थी। इससे 129 परिवार बेघर हो गए थे। साल 2003 में वरुणावत पर्वत से भूस्खलन हुआ, जिसने उत्तरकाशी का भूगोल ही बदल डाला। कई आंदोलनों के बाद साल 2005 में वरुणावत पैकेज के तहत पीड़ित परिवारों को 3.6 लाख रुपए मुआवजा दिया गया। साल 2008 से बार्सू गांव में भी भूस्खलन हो रहा है, कई घरों में दरारें हैं।
साल 2010 में भटवाड़ी गांव और तहसील मुख्यालय पर जमीन धंस गई। करीब 50 परिवारों के मकान गिर गए। साल 2012-2013 की आपदा के बाद भूस्खलन प्रभावित गांवों की संख्या बढ़ती जा रही है। उत्तरकाशी में फिलहाल 56 गांवों के 773 परिवारों को विस्थापन की जरूरत है। इनमें अति संवेदनशील गांवों की संख्या 26 है। जोशीमठ के बाद यहां के लोगों में भी डर बढ़ गया है। प्रशासन की तरफ से अब तक कोई मदद के लिए नहीं पहुंचा है।
बागेश्वर और जोशीमठ के बीच 191 किलोमीटर की दूरी है, लेकिन कहानी वही है। बागेश्वर जिले के 48 गांव खतरे में हैं। कपकोट तहसील के 28 गांव इस लिस्ट में शामिल हैं। हर साल लैंडस्लाइड हो रही है, या तो मकानों में दरारें हैं या फिर वे जमींदोज हो चुके हैं। न मुआवजा मिला और न किसी को दूसरा घर।
जोशीमठ की ही तरह बागेश्वर जिला भी भूकंप के जोन 5 में आता है। 2013 में आई आपदा के बाद से कपकोट तहसील के 28 के अलावा गरुड़ के 9 और कांडा के 3 गांव हादसे के मुहाने पर खड़े हैं। बीते दिनों कपकोट के कुंआरी गांव में स्थिति भयानक हो गई तो लोगों को दूसरी जगहों पर शिफ्ट कराया गया था। कपकोट के दो गांवों दोबाड़ के 13 परिवार और बड़ेत के 11 परिवारों के घर टूट चुके हैं। तीन साल पहले विस्थापन मंजूर हुआ, लेकिन आज तक फाइल अटकी ही है।
बारिश होती है, स्थिति बिगड़ती है तो प्रशासन हर साल लोगों को स्कूल, पंचायत घर या फिर अस्थायी टेंट में शिफ्ट कर देता है। बारिश खत्म होते ही विस्थापन फिर फाइलों में लौट जाता है। लोग कब तक टेंट या पंचायत घर में रहें, अपने टूटे-फूटे मकानों में लौट आते हैं।
बागेश्वर की DM अनुराधा पाल बताती हैं- ‘कुंआरी गांव में लैंडस्लाइड होने के बाद हमने 18 परिवारों को दूसरी जगह बसाया था। 58 और परिवारों का विस्थापन कराना है, लिस्ट भेज दी है, उम्मीद है जल्द से जल्द हो जाएगा। हम इलाके में और सर्वे करा रहे हैं।’
कर्णप्रयाग, श्रीनगर, नैनीताल, उत्तरकाशी, बागेश्वर का हाल बताता है कि जोशीमठ की कहानी उत्तराखंड में कई जगह खुद को दोहरा रही है, या फिर दोहराए जाने के बेहद करीब है। 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद इस तरह की घटनाएं बढ़ी हैं, लेकिन प्रशासन का इसे लेकर क्या प्लान है, कोई नहीं जानता।
कई जगह ऐसी हैं, जहां जमीन धंसने या लैंडस्लाइड जैसी घटनाएं ड्रिलिंग या ब्लास्टिंग के बाद बढ़ गईं। इसे कैसे रोका जाए कोई नहीं जानता, सर्वे हुए हैं, रिपोर्ट्स बनी हैं, चेतावनियां भी दी गईं लेकिन सब कागजों-फाइलों तक सिमट कर रह गया।
जियोलॉजिस्ट प्रो. एसपी सति कहते हैं ‘जोशीमठ की तरह नैनीताल, उत्तरकाशी, बागेश्वर, श्रीनगर, कर्णप्रयाग में एक जैसा पैटर्न दिख रहा है। इसकी वजह ज्यादा कंस्ट्रक्शन, खराब ड्रेनेज सिस्टम, पहाड़ों पर लग रहे बड़े प्रोजेक्ट और नदियों के बहाव को गलत तरीके से बदलना है। उत्तराखंड में घरों में दरारों की समस्या नई नहीं है। 2010 में श्रीनगर में टिहरी झील के आसपास घरों में दरारें आई थीं। जरूरी है कि विस्थापित आबादी को स्टेबल फॉरेस्ट लैंड में बसाया जाना चाहिए।’
2 जनवरी से जमीन धंसने के बाद जोशीमठ ने लोगों से सरकार तक सभी की चिंता बढ़ा दी। एक्सपर्ट कह रहे हैं कि इस शहर को बचा पाना अब मुश्किल है। 14 दिन से धंस रहे जोशीमठ से ये ग्राउंड रिपोर्ट पढ़िए…
1. पहले घरों में दरार, फिर बारिश से ढहने का खतरा, मदद में सिर्फ 5 हजार
11 जनवरी की रात जोशीमठ में बारिश हुई। घरों की दरारों में पानी गया, तो इनके गिरने का खतरा बढ़ गया। प्रशासन इन पर पहले ही रेड क्रॉस का निशान लगा चुका है। बारिश के बाद लोग अपना सामान समेटने लगे। मनोहरबाग में रहने वालीं नीलम परमार कहती हैं कि शुरुआत में लगा कि सब नॉर्मल है, ठीक हो जाएगा। बारिश हुई तो ये सब नीचे बैठ गया (इशारे से घर की दरारें दिखाते हुए)। 6 कमरे का घर छोड़कर गुरुद्वारे में रह रहे बांकेलाल कहते हैं कि सरकार से अभी सिर्फ 5 हजार का एक चेक मिला है।
2. रोते हुए लोग बोले- घर अचानक हिलने लगता था, आंखों के सामने सब तबाह‘रात को अचानक लगा कि घर हिल रहा है, पूरा घर टेढ़ा हो गया। दीवारों पर मोटी-मोटी दरारें आ गईं। घर के नीचे से पानी बहने की आवाज आ रही है। मेरा 9 कमरे का घर रहने लायक नहीं बचा। कब गिर जाए, कोई भरोसा नहीं है।’ जोशीमठ शहर में रहने वालीं कल्पेशवरी पांडे ये बताते हुए रोने लगती हैं। शहर में हर तरफ जोर-जोर से रोती-बिलखती महिलाएं दिखती हैं, जो सिर पकड़े अपने घरों को टूटते देखने को मजबूर हैं।
Courtesy: वैभव पलनीटकर, Bhaskar